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नीरा

लिए भगवान् का न्याय अपने भीषण रूप में नहीं प्रकट हुआ की रोता था-पुकारता था कितु वहाँ सुनता कौन है !

तुम्हारा बदला लेने के लिए भगवान् नहीं आये इसीलिए तुम अविश्वास करने लगे | लेखकों की कल्पना का साहित्यिक न्याय तुम सर्वत्र प्रत्यक्ष देखना चाहते हो न ! निवास ने तत्परता से कहा ।

क्यों न मैं ऐसा चाहता? क्या मुझे इतना भी अधिकार न था ? तुम समाचार पढ़ते हो न?

अवश्य।

तो उसमें कहानिया भी कभी-कभी पढ़ लेते होंगे और उनकी आलोचनाएँ भी।

हा तो फिर !

जैसे एक साधारण आलोचक प्रत्येक लेखक से अपने मन की कहानी कहलाया चाहता है और हठ करता है कि नहीं यहा तो ऐसा न होना चाहिए था ठीक उसी तरह तुम सष्टिकर्ता से अपने जीवन की घटनावाली अपने मनोकूल सही कराना चाहते हो। महाशय ! मैं भी इसका अनुभव करता हूँ कि सर्वत्र यदि पापों का भीषण दण्ड तत्काल ही मिल जाया करता तो यह सृष्टि पाप करना छोड़ देती। किंतु वैसा नहीं हुआ । उलटे यह एक व्यापक और भयानक मनोवृति बन गई है कि मेरे कष्टों कारण कोई दूसरा है। इस तरह मनुष्य अपने कामों को सरलता से भूल सकता है। क्या तुमने कभी अपने अपराधों पर विचार किया है ?

निवास बड़े वेग में बोल रहा था। बुडढा न जाने क्यों कांप उठा। साइकिल का तीव्र आलोक उसके विकृत मुख पर पड़ रहा था। बुड्ढ़े का सिर धीरे-धीरे नीचे झुकने लगा। नीरा चौक कर उठी और एक फुसा कम्बल उस बुडढे को ओढाने लगी। सहसा बुड्ढ़े ने सिर