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नीरा

यही मटियाबुज है |देव निवास ने बड़ी गम्भीरता से कहा ।- और अब तुम कहोगे कि यह बुद्धता वही से लौटा हुआ कोई कुली है।

हो सकता है मुझे नहीं मालूम । अच्छा चलो अब लौट | कह कर अमरनाथ ने अपनी साइकिल को धक्का दिया।

देवनिवास ने कहा-चलो उसकी झोपड़ी तक मैं उससे कुछ बात करूगा।

अनियापूर्वक चलो कहते हुए अमरनाथ ने मौलसिरी की ओर साइकिल घुमा दी। साइकिल के तीव्र आलोक में झोपड़ी के भीतर का दृश्य दिखाई दे रहा था । बुद्धता मनोयोग से लाई पाक रहा था और नीरा भी कल की बची हुई रोटी चबा रही थी। रूखे ओठा पर दो एक दाने चिपक गये थे जो उस दरिद्र मुख में जाना अस्वीकार कर रहे थे । लुक फेरा हुमा टीन का गिलास अपने खुरदरे रंग का नीलापन नीरा की शाखों म उड़ेल रहा था । पालोक एक उज्ज्वल सय है बद आँखों में भी उसकी सत्ता छिपी नहीं रहती। बुड्ढ़ ने आँखें खोल कर दोना बाबुना को देखा । वह बोल उठा-बाबूजी । आप अखबार देने पाये है ? मैं अभी प य ले रहा था बीमार न हूँ इसी से लाई खाता हूँ बड़ी नमकीन होती है। अखबारवाले भी कभी कमी नमकीन बातों का स्वाद दे देते हैं । इसी से तो बेचारे कितनी दूर दूर की बातें सुनाते हैं । जब मैं मोरिशस म था तब हिदुस्तान की बातें पढा करता था । मेरा देश सोने का है ऐसी भावना जग उठती थी। अब कभी कभी उस टापू की बात पढ़ पाता हूँ तब यह मिट्टी मालूम पड़ता है पर सच करता हूँ बाबूजी मौरिशस में अगर गोली न चली होतो और नीरा की माँ न मरी होती-हा गोली से ही वह मरी थी तो मैं अब तक वहीं से जन्मभूमि का सोने का सपना देखता और इस अभागे देश ! नहीं नहीं बाबूजी मुझे यह कहने का अधिकार नहीं। मैं हूँ अभागा । हाय रे भाग !!