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आँँधी

हो जाते हैं तब व बेचारा ग्राहक और भी कम में फँस जाता । मेरी सौदर्य की अनुभूति विलीन हो गई । मैं अपने दैनिक जीवन के अनुसार टलने का उपक्रम करने लगा किंतु वह सामने अंचल प्रतिमा की तरह खड़ी हो गई । मैंने कहा - क्या है ?

चश्मा चाहिए ? मैं ले आती हूँ । ठहरो ठहरो मुझे चश्मा न चाहिए ।

कहकर मैं सोच रहा था कि कहीं मुझे खरीदना न पड़े । उसने पूछा तब तुम पढ़ सकोगे कैसे ?

मैंने देखा कि बिना पढ़े मुझे छुट्टी न मिलेगी । मैंने कहा‌ - ले आओ देख सम्भव है कि पढ़ सकूँ । - उसने अपनी जेब से एक बुरी तरह मुड़ा हुआ पत्र निकाला । मैं उसे लेकर मन-ही-मन पढ़ने लगा । लैला ।

तुमने जो मुझे पत्र लिखा था उसे पढ़ कर मैं हँसा भी और दुख तो हुआ ही । हँसा इसलिये कि तुमने दूसरे से अपने मन का ऐसा खुला हुआ हाल क्यों कह दिया । तुम कितनी भोली हो । क्या तुमको ऐसा पत्र दूसरे से लिखवाते हुए हिचक न हुई । तुम्हारा घूमनेवाला परिवार ऐसी बातों को सहन करेगा ? क्या इन प्रेम की बातों में तुम गम्भीरता का तनिक भी अनुभव नहीं करती हो ? और दुखी इसलिए हुआ कि तुम मुझ से प्रेम करती हो । यह कितनी भयानक बात है । मेरे लिए भी और तुम्हार लिए भी । तुम ने मुझे निमंत्रित किया है प्रेम के स्वतंत्र साम्राज्य में घूमने के लिए किन्तु तुम नहीं जानती हो कि मुझे जीवन की ठोस झंझटों से छुट्टी नहीं । घर में मेरी स्त्री है तीन तीन बच्चे हैं उन सबों के लिए मुझे खटना पड़ता है काम करना पड़ता है । यदि वैसा न भी होता तो भी क्या मैं तुम्हारे जीवन को अपने साथ घसीटने में समर्थ होता । तुम स्वतंत्र वन विहगिनी और मैं एक हिन्दू गृहस्थ अनेकों रुकावटें बीसों बंधन । यह सब असम्भव है । तुम भूल