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आँँधी

गोपाल ने नगर म जाकर उसव देखने का कुतूहल दवाते हुए पूछा ऐसा क्यों बाबूजी

ऊँचे तकिये पर चित्त लेट कर लम्बी साँस लेते हुए मनोहरदास ने कहना प्रारम्भ किया-

हम और तुम्हारे बड़े भाई गिरधरदास साथ-ही-साथ जवाहिरात का व्यवसाय करते थे। इस साझे का हाल तुम जानते ही हो । हाँ तब बम्बई की दूकान न थी और न तो आज-जैसी रेलगाड़ियों का जाल भारत में पिछा था इसलिए रथों और इक्कों पर भी लोग लम्बी-लम्बी यात्राएँ करते । विशाल सफेद अजगर-सी पड़ी हुई उत्तरीय भारत की वह सड़क जो बगाल से काबुल तक पहुचती है सदव पथिकों से भरी रहती थी। कहीं कहीं बीच में दो चार कोस की निजनता मिलती अन्यथा प्याऊ बनियों की दूकान पड़ाव और सरायों से भरी हुई इस सड़क पर बड़ी चहल पहल रहती। यात्रा के लिए प्रत्येक स्थान में घण्टे मे दस कोस जाने वाले इक्के तो बहुतायत से मिलते । बनारस इसम विख्यात था।

हम और गिरधरदास होलिकादाह का उसव देखकर दस बजे लौटे थे कि प्रयाग के एक यापारी का पत्र मिला। इसम लाखों के माल विक जाने की आशा थी और कल तक ही वह व्यापारी प्रयाग में ठहरेगा। उसी समय इक्केवान को बुला कर सहेज दिया और हम लोग ग्यारह बजे सो गये। सूर्य की किरणे अभी न निकली थी दक्षिण पवन से पत्तियाँ अभी जैसे झम रही थीं पर तु हम लोग इक्के पर बैठ कर नगर को कई कोस पीछे छोड़ चुके थे । इक्का बड़े वेग में जा रहा था। सड़क के दोनों ओर लगे हुए आम की मञ्जरियो की सुगध तीव्रता से नाक में घुस कर मादकता उत्पन्न कर रही थी। इक्केवान की बगल मे बैठे हुए रघुनाथ महाराज ने कहा- सरकार बड़ी ठंद है। कहना न होगा कि रघनाय महाराज बनारस के एक नामी लठैत