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आँँधी

मनोविनोद की सामग्री हो सकती है तब आज उसका बसा हुआ तट मुझे क्यों न आकर्षित करता । मैं धीरे-धीरे मुचकुद के पास पहुँच गया । उसकी एक डाल से बंधा हुआ एक सुंदर बछेड़ा हरी-हरी दूब खा रहा था और लहंगा कुरता पहने रूमाल सिर से बाँधे हुए एक लड़की उस‌ की पीठ सूखे घास के मुट्ठ से मल रही थी । मैं रुक कर देखने लगा‌ । उसने पूछा-घोड़ा लोगे बाबू ? नहीं - कहते हुए मैं आगे बढ़ा था कि एक तरुणी ने झोपड़े से सिर निकाल कर देखा । वह बाहर निकल आई । उसने कहा आप‌ पढ़ना जानते हैं ? हाँ जानता तो हूँ। हिंदुओं की चिट्ठी आप पढ़ लेंगे ? मैं उसके सुंदर मुख को कला की दृष्टि से देख रहा था । कला की दृष्टि ठीक तो बौद्ध कला गांधार कला विड़ा की कला इत्यादि नाम से भारतीय मूर्ति सौंदर्य के अनेक विभाग जो हैं । जिस से गढन का अनुमान होता है मेरे एकांत जीवन को बिताने की सामग्री मे इस तरह का जड़ सौंदर्य बोध भी एक स्थान रखता है । मेरा हृदय सजीव प्रेम से कमी आप्लुत नहीं हुआ था । मैं इस मूक सौंदर्य से ही कभी कभी अपना मनोविनोद कर लिया करता । चिट्ठी पढ़ने की बात पूछने पर भी मैं अपने मन में निश्चय कर रहा था कि यह वास्तविक गांधार प्रतिमा है या ग्रीस और भारत का इस सौदर्य में समंवय है । वह झुझला कर बोली - क्या नहीं पढ़ सकोगें ? चश्मा नहीं है - मैंने सहसा कह दिया । यद्यपि मैं चश्मा नहीं लगाता तो भी स्त्रियों से बोलने में न जाने क्यों मेरे मन में हिचक होती है । मैं उनसे डरता भी था क्योंकि सुना था कि वे किसी वस्तु को बेचने के लिए प्राय इस तरह तंग करती है कि उनसे दाम पूछने वाले को लेकर ही छूटना पड़ता है । इसमें उनके पुरुष लोग भी सहायक