दिया था । बाई ने केवल धार्मिक कार्यों में ही कोष का द्रव्य
खर्च करके अपना अटल गौरव स्थापित किया था । बाई ने अपने राज्य के ब्राह्मणों और कंगालों को नित्य भोजन कराने का उत्तम प्रबंध किया था, और गरमी के दिनों में धूप से व्याकुल पथिकों तथा खेत में काम करनेवाले किसानों और चौपायों तथा दूसरे प्राणियों के लिये स्थान स्थान पर पौसाल बैठा कर पानी पिलाने की उत्तम व्यवस्था की थी । और शरद ऋतु के आरंभ होते ही वे ब्राह्मणों, गरीबों, अनाथों और अपने आश्रित जनों को गरम वस्त्र बाँटती थीं । उनके धर्म और दान की सीमा केवल मनुष्यों तक ही न थी वरन् वन के पशु पक्षियों और जल के कच्छ मच्छ तक को भी बाई की असीम दया का आश्रय मिलता था । बहुधा लोग फसल के खतों पर बैठनेवाले पशु पक्षियों को भगा दिया करते हैं, इस कारण बाई विशेष रूप से पके अन्न के खेत मोल लेकर उन पशु पक्षियों के चुगने के हितार्थ छुड़वा देती थी ।
इस प्रकार से जीव मात्र पर दया रखने के कारण बाई को हम कदापि न हँसेंगे और न यह कहेंगे कि इतने अपरिमित धन का इस प्रकार खर्च करना सरासर भूल था । परंतु इस विषय में एक विद्वान् ब्राह्मण ने कहा है कि यदि बाई इससे दुगुना भी धन अपने सैन्य बल की और व्यय करती तो भी उनका इतना प्रताप और गौरव न होता जितना कि इस प्रकार धन व्यय करने से हुआ है । और यथार्थ में यदि अहिल्याबाई को सांसारिक अभिमान होता तो वे इतना बड़ा परमार्थ का कार्य किसी प्रकार भी नहीं कर सकती थीं ।