पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/९६

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उसको सहज में ही बड़ी बुद्धिमानी से वे निबटा देती थीं। उनके शासनकाल में दूसरे अनेक राजा, महाराज, नवाब अदि अपने अपने राज्यों में राज्य करते थे; परंतु यश और प्रजा के प्रेम-पात्र बनने में बाई के समान कोई न था। उनके पास अपने प्रताप प्रदर्शन तथा रक्षा के लिये और और राजा, महाराजाओं तथा नवाबों के समान न तो अधिक सैनिक बल था और न बाई ने इस प्रकार से अपना प्रभुत्व तथा कीर्ति स्थापन करने के लिए अपरिमित धन का व्यय ही किया था; क्योंकि बाई को यह पूर्ण विश्वास हो गया था कि देह-बल की अपेक्षा धर्म-बल ही प्रधान और श्रेष्ठ है। अतएव वे पूर्ण रीति से महाभारत के इस महावाक्य पर आरूढ़ रहती थीं-

"यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः"

अहिल्याबाई की सदग्रंर्थों में बड़ी रुचि रहती थी और उनके विचारों के अनुकूल ही वे मान अपना सब काम किया करती जिससे वे सदा प्रसन्न रहती थी। उनको इस बात का भली भाँति, विश्वास था कि पवित्र आचरण और परोपकार-धुद्धि न हो तो मनुष्य को सुख मिलना असंभव है। मनुष्य को सुखी होने के लिये मन को निर्मल और शांत विचारों से परिपूरित कर देना चाहिए और गत दुःखों के लिये शोक न करते हुए संतोष करना चाहिए; और जिस आचरण से हमें पश्चाताप हो, उसे दूर करना चाहिए।

बाई के विचार पाश्चिमात्य देश के विद्वान् एंटोनियस के विचारों के सदृश प्रतीत होते हैं। इन विद्वान् के विषय में लिखा है कि वे "विवेक-दृष्टि के अनुकूल श्रद्धा, धार्मिक भाव,