करती थीं। फिर फलाहार करके राज्य के प्रधान कर्मचारियों को एकत्र कर राजकार्य के संबंध में प्रबंध अथवा और जो कुछ मंत्रणा आदि करनी होती वह करती, राज्य के आय व्यय के हिसाब को ध्यानपूर्वक निरीक्षण करती और रात्रि के ग्यारह बजे के उपरांत शयनगृह में सोने जाती थी। अहिल्याबाई का संपूर्ण समय राजकार्य, प्रजापालन, उपवास और धर्माचरण आदि कार्यों में ही बीतता था। ऐसा कोई धर्म-संबंधी त्योहार अथवा उत्सव न था जिसको वे बड़े समारोह के साथ न मनाती हों। लोगों का यह विश्वास है कि जो सांसारिक कार्यों में लिप्त रहता है, उसमें धर्मकर्म, अथवा परमार्थ नहीं हो सकता; और जो परमार्थ में लगा रहता है उससे सांसारिक कार्य नहीं होता। परंतु धन्य थी अहिल्याबाई कि एक संग दोनों कार्यों को विधिपूर्वक, उचित रीति से, भली भाँति और निर्विघ्न संपादन करती थी, और किसी कार्य में त्रुटि अथवा उसको अपूर्ण नहीं होने देती थी। जिन लोगों को यह भ्रम है कि एक साथ परमार्थ और स्वार्थ दोनों कार्य नहीं हो सकते हैं, उन मनुष्यों के लिये अहिल्याबाई एक अच्छा उदाहरण हैं। भोग-सुख, की लालसा को छोड़ कर बहुत उत्तमता और नियम के साथ अहिल्याबाई ने अपना राजकार्य चलाया था। ऐसे उदाहरण इतिहासों में बहुत कम दृष्टिगोचर होते हैं।
अहिल्याबाई की सभा में अन्यान्य राजाओं के जो दूत रहा करते थे, वे भी बाई की बुद्धिमानी और नम्रता से सर्वदा प्रसन्न रहा करते थे। बाई केवल दानी या धर्मात्मा ही नहीं-