करने की व्यवस्था कर दिखावेखा उस वीर को मैं अपनी एकमात्र कन्या का पाणिगृहण कराऊँगी । इस प्रस्ताव को सुनकर थोडे़ समय तक सारे दरबार में स्तब्धता और करुणा छा गई, अंत को दरबारियों में से एक नवयुवक मराठा वीर, अपने स्थान पर खड़ा हुआ और उसने इस कार्य में दृढ़ चित से योग देकर प्रजार को सुख और शांति पूर्ण रखने की सब के सम्मुख प्रतिज्ञा की और बाई को पूर्ण विश्वास दिला कर तत्काल यह निवेदन किया कि मुझे राज्य से द्रव्य और सेना की सहायता मिलना अति आवश्यक है ।
इस बात को सुनकर बाई अत्यंत प्रसन्न हुई, क्योंकि यह नवयुक स्वयं मरहठा कुल के भूषण थे और पुत्री मुक्ताबाई के योग्य वर थे, तुरंत अहिल्याबाई ने उस साहसी युवक के हितार्थं अपने निज कोष से धन और निज सेना से सेना देने की अपने अधिकारियों को आज्ञा दी, और दरबार समाप्त किया और सब आए हुए प्रजागणों के भोजन की व्यवस्था कर दूसरे दिन प्रातः काल शुभ मुहूर्त में प्रजा की रक्षा तथा सुप्रबंध करने के हितार्थ वीर यशवंतराव फाणशे को सहर्ष विदा किया ।
इन्होंने संपूर्ण राज्य की प्रजा को उनके कष्टों से मुक्त करके उनके सुख चैन से रहने का उत्तम प्रबंध दो ही वर्षों में कर दिखाया और जब बाई को इस बात का विश्वास हो गया तब उन्होंने यशवतराव फाणशे के साथ पुत्री मुक्ताबाई के पाणिग्रहण करने की तयारी का आरंभ कर दिया ।
इस विषय के संबंध में मालकम साहब लिखते हैं कि