कितनी फौज किस किस स्थान पर स्थापित थी यह कहना तो अत्यंत कठिन है, परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस समय समस्त भारतवर्ष इनके पराक्रम और बल के नाम मात्र से थर्राता था। महाराष्ट्रीय फौज के आगमन के श्रवण मात्र से गाँव के गाँव बात की बात में खाली हो जाया करते थे। इनकी फौज में रणकुशल, नामांकित वीर एक से एक चढ़ बढ़ कर थे। इन्हीं वीरों में से एक वीर एक दल लिए हुए अणकाई के दुर्ग पर रहता था।
एक दिन मल्हारराव के अंतःकरण में यह प्रबल इच्छा उत्पन्न हुई कि आज दुर्ग पर चलकर सेना को और उसके फौजी काम को देखें, परंतु साथ ही यह विचार भी हुआ कि यदि मामा अथवा माता से यह विचार कहा जाय तो वे संभव है कि वहाँ जाने को नाहीं करदें। इन विचारों से मल्हारराव किसी को बिना पूछे ताछे ही अणकाई के दुर्ग को चल दिए । जिस समय ये दुर्ग पर पहुँचे उस समय फौजी अफसर लोग अपनी अपनी कंपनी के कवायद, फौजी काम, एक साथ भूमि पर लेट बंदूक चलाना इत्यादि का निरीक्षण कर रहे थे। मल्हारराव ने एक वृक्ष के नीच ठहर अपनी दृष्टि को चहू ओर हाल वह दृश्य भली भाँति देखा । वीरगणों के आपस में मिलकर एक के पीछे एक श्रेणीबद्ध कतारों में होकर चलना, प्रत्येक के कंधे पर चमकता हुआ बलम और इसमें की लाल, धवल पताकाएँ, एक साथ हाथ का हिलना, पैरों को बढ़ाना और हुक्म के सुनते ही एक ओर से दूसरी ओर फिरना आदि बातों को देख इनका हृदय उमंग से उछलने लगा, और