पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१७४

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होने लगे । पश्चात् वह धुँआ ऊपर चौड़ा और ऊँचा हो काला भयानक छत्र सा बनने लगा और नीचे से लंबी लंबी जीभवाली अग्निज्वालाएँ उमड़ पड़ी और शीघ्र ही एक साधारण धधक से भयानक लाल और गर्जती हुई भरम करनेवाली अग्नि ने चिता को घेर लिया । पश्चात् ढाल वांसुरी, झाँज, घड़ियाल आदि वाद्यों का कर्कश, तीक्ष्ण और बेसुरा शब्द एक ऊँची और बहिरा करनेवाली ध्वनि में प्रारंभ हुआ । उस समय जलती हुई चिता में से चिल्लाहट की अस्पष्ट ध्वनि सुनाई देने की कल्पना होती थी, परंतु भयंकर चिल्लाहट की एक स्पष्ट ध्वनि सुनाई दी जो कि चिता में से नहीं वरन् निराशा को प्राप्त हुई कोमल हृदयवाली अहिल्याबाई की थी ।

बाई यद्यपि ब्राह्मणों-के द्वारा की जा रही थी तथापि दुःख के वेग से स्वतंत्र होकर अपनी छाती पीट रही थी और बाल नोच रही थी और उनके किचकिचाते हुए दात से और प्रेमवश होकर चिता में कूदने के लिये अत्यंत व्याकुल होने में ऐसा स्पष्ट रूप से भासता था कि उनकी आत्मा का आधिपत्य उनके ऊपर कुछ नहीं रहा था और उनकी सर्वदा की मानसिक शक्ति विलीन हो गई थी ।

इस प्रकार कहा जाता है कि बाई का उदार अंतःकरण थोड़े काल के लिये स्तब्ध और मूर्छित हो गया था परंतु उस सर्व शक्तिमान कृपासागर दयालु परमेश्वर ने बाई के मानसिक दुःख को शीघ्र ही एक ओर कर के शांत कर दिया और उसने उनके दुःख से मुर्झा कर झुके हुए मस्तक को पुनः ऊपर उठा दिया ।