"श्रीगणेशायनमः स्वस्ति श्री विक्रमार्कस्य सम्वत १८४७ सत्पाब्धि' नागभूशके १७१२ युग्म कुसत्पैकपिते द्रुमति वत्सरे माघे शुक्रत्रयोदश्यां पुष्याकें बुधवासरे स्नुपा मेल्हारि रावस्य खंडेरावस्य वल्लभा शिवपूजापरनित्यं ब्राह्मणधर्मतत्परा अहल्याख्या यबेद्येदं मार्गद्वारं सुशोभनम्.”
भावार्थ--श्रीगणेशायनमः स्वस्तिश्रीविक्रमार्क संवत् १८४७ शके १७१२ द्रुमति नाम संवत्सरे माघ शुकुत्रयोदशी पुष्य के सूर्य बुधवार के दिन मल्हारराव की पुत्रवधू खंडेराव भी धर्मपत्नी नित्य शिवपूजापरायणा ब्राह्मण-धर्मतत्परा अहिल्या ने यह सुन्दर मार्गद्वार बंधाया ।
इस दरवाजे के संबंध में एक दंतकथा भी इस प्रकार है कि गणपतराव नाम के एक गृहस्थ ने इस मार्ग से जाने आने वाले बैल, गाड़ी घोड़ा आदि पर कर लगा कर अपना निर्वाह प्रारभ किया था । परंतु जब बाई को ये समाचार मालूम हुए तब उन्होंने इसी इकत्रित धन से यह दरवाजा बँधवा दिया था ।
(५) अहिल्याबाई जिस समय राजसिंहासन की शोभा बढ़ा रही थीं उस समय इंदौर में एक धनवान तथा निपुत्र साहूकार का देवलोक हो गया । कुछ समय के पश्चात् उसकी विधवा स्त्री ने एक अर्जी अहिल्याबाई के दरबार में दत्तक पुत्र लेने के आशय से भेजी । उसमें विधवा ने स्पष्ट रूप से लिख दिया था कि मेरे पास अधिक संपति होते हुए भी वारिस कोई नहीं है। यदि मुझे आज्ञा हो जाये तो स्वजाति के एक पुत्र को गोद ले लूं और उसको संपति का अधिकारी बनाऊं। इस
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