ने अपनी मन रूपी डोर को धर्मग्रंथो के श्रवण, मनन
और पठन के रस में भिगोया था और जब उस पर "श्री राम नाम" रूपी मंत्र का तेजोमय और प्रभावशाल पालिश किया गया तब वह इतना कोमल और दृढ़ हो गया कि उसे दिन दूना और रात चौगुना उल्लास नित्य प्रति दान, पुण्य
आदि सत्कार्यों के करने में होता था । वह मन रुपी डोर इतना दृढ़ हो गई थी कि बड़े बड़े संकटों के और नाना प्रकार के दुःखों के खिंचाव पर भी वह अंतिम समय तक जैसी की तैसा ही बनी रही थी । अपनी ६० वर्ष की अवस्था में बाई अपने विमल और मन लुभानेवाले यश की ध्वजा उड़ाती हुई नित्य लोक में जा बसी ।
इस विषय में मालकम साहब का भी ऐसा लेख है कि "अहिल्याबाई का स्वर्गवास" ६० वर्ष की अवस्था में चिंता और रुग्नता के कारण हुआ था । कोई कोई यह भी कहते हैं कि उनका स्वर्गवास धर्मशास्त्रानुसार अत्यंत कठिन व्रत और उपासना के ही कारण हुआ था । बाई उँचाई में मध्यम श्रेणी की और देह से दुबली थी । यद्यपि उनका सांसारिक जीवन सुखपूर्वक नहीं व्यतीत हुआ था तथापि उनका वण जो गेहुँए रंग को लिए हुए था, बहुत ही देदीप्यमान
और प्रभावशाली जान पड़ता था । ऐसा कहा जाता है कि वह दिव्य रूप उनके प्राण निकलने के समय तक उनकी धार्मिक वृत्ति के कारण तेजस्वी बना रहा था । बाई का अंतःकरण भक्ति से सराबेार था और उनका मन सर्वदा धर्म पर ही आरूढ़ रहता था जिसका कारण पुराणों का