पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१४७

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परंतु वह निष्फल हुआ जान अंत को बाई ने अत्यंत शोकातुर, और दुःखित हो पुत्री को साष्टांग प्रणाम कर देवता-तुल्य समझ कर कहा कि मुझ अबला और अनाथ को इस दुःख-सागर में डुबाकर सती मत हो । यद्यपि मुक्ताबाई प्रेमल और शांत थी तथापि उसने अपना सती होने का विचार निश्चित कर लिया था । उसने बाई से कहा कि "माता ! तुम अब वृद्ध हो चुकी हो और थोड़े ही दिनों में तुम्हारा धार्मिक जीवन समाप्त हो जायगा । मेरा एकमात्र पुत्र और पति तो मृत्यु के ग्रास हो चुके हैं और जब तुम भी स्वर्गवासिनी बन जाओगी, तब मेरा जीवन असहाय हो जायगा और यह सती होने का समय हाथ से निकल जायगा । अंत को अहिल्याबाई ने अपना अनुरोध व्यर्थ जान अंतिम हृदय विदीर्ण दृश्य अवलोकन करना निश्चित किया और सती के साथ चलकर वे चिता के पास खड़ी हो गईं । वहाँ पर उनको दो ब्राह्मणों ने उनकी बाँहें पकड़कर सँभाल रखा था । यद्यपि बाई का हृदय दुःख से संतप्त हो रहा था तयापि वे बड़ी दृढ़ता के साथ चिता की पहली ज्वाला के उठने तक खड़ी रहीं । परंतु पश्चात् उनका धैर्य नष्ट हो गया और उनके हृदय को भेदनेवाली करुणापूर्ण गगनभेदी चिल्लाहट ने संपूर्ण दर्शकों का हृदय, जो वहाँ पर असंख्य थे, दुःख से कंपायमान कर दिया और जिन ब्राह्मणों ने उनको पकड़ रखा था, इनके हाथों से प्रेमवश हो छुटने के लिये और अत्यंत दुःख के कारण चिता में कूदने के लिये प्रयत्न करती थीं । जब चिता में दोनों के शरीर भस्म हो चुके तब