पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१४४

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न करना चाहिये । जैसे नदी में काठ के लट्ठे अपने आप प्रवाह में बहते हुए मिल जाते हैं और फिर अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य का स्त्री पुत्रादि के साथ मिलना है। और जैसे कोई पथिक मार्ग में वृक्ष की छाया में बैठ विश्राम कर चला जाता है, वैसे ही प्राणियों का इस संसार में समागम होता है । और दूसरे यह शरीर तो पंचतत्वों से बना हुआ है, और फिर वह उसमें लीन हो जाता है । इस का पछतावा ही क्या ? मनुष्य जितना स्नेह बढ़ाता है उतना ही हृदय पर शोक के अंकुर जमाता है। और जैसे नदी के प्रवाह जाते हैं और लौटकर नहीं आते, वैसे ही रात्रि दिन प्राणियों की आयु लेकर चले जाते हैं। माँ ! जिस दिन प्राणी गर्भ में आता है, उसी दिन से वह मृत्यु के समीप सरकता जाता है। इस कारण मेरी प्रार्थना है कि शोक की बार बार स्मृति न करो, यही इसकी ओषधि है । इसलिये माता, मेरी भलाई और मेरे यश और मेरे कल्याण के हेतु मुझे आज्ञा दो और विदा करो जिससे मैं तुम्हारे संमुख स्त्री-धर्म का पूरा निर्वाह करती हुई सुख और शांति के साथ चिरकाल के लिये अपने सत से सतीलोक में जा बसूँ ।

जब अहिल्याबाई ने जाना कि मैं किसी प्रकार से भी मुक्ता को सती होने की प्रतिज्ञा से विचलित नहीं कर सकती, तब उन्होंने विवश हो कातर स्वर परंतु प्रेमयुक्त शब्दों से पुत्री को सती होने की आज्ञा दे दी । आज्ञा के होते ही सब सामग्री का प्रबंध होने लगा और अंत को अपने जामाता का अंतिम संस्कार और अपनी पुत्री को सत्यलोक को विदा करने के हेतु