पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१४१

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इस तरह अनेक प्रकार से बाई ने मुक्ता को सती होने से रोका।

मुक्ताबाई भी अपनी माता के समान दयालु और पाप-भीरु थीं। जब स्वयं अहिल्याबाई पर यह समय आकर उपस्थित हुआ था तब अपने ससुर मल्हारराव के अनुरोध से और प्रजापालन अपना कर्तव्य समझ कर स्वर्ग सुख को तिलांजलि दे, नाना प्रकार की यातनाओं को सहन करने को उद्यत हो गई थीं। परंतु मुक्ताबाई की ऐसी स्थिति कहाँ थी? उन्हें किस लालसा से इस भवसागर रूपी संसार में दुःख भोगना उचित था? इस कारण अपने देवतुल्य पति के साथ सती होने के श्रेष्ठ धर्म पर विश्वास रख मुक्ताबाई ने बाई के अल्प जीवन को सुखी रखना अनुचित समझकर ही सती होना निश्चित किया था। वह अपनी माता को समझाने लगीं-

माँ, अब मेरा यहाँ रहना उचित नहीं है। जिनको बिना मेरे देखे एक घड़ी भी चैन नहीं होता था, वह मेरी बाट अवश्य जोहते होंगे। तुमको केवल मेरा यह शरीर ही दिखाई देता है। परंतु मेरे प्राण तो इन्हीं के पास हैं। तुम मेरे इस शुभ संकल्प में विघ्न न डालो। तुम मेरी शीघ्र तैयारी कर दो।

इन हृदयद्रावक शब्दों को सुन अहिल्याबाई पागल की भाँति हो गई और धैर्य रख मुक्ताबाई को माता और रानी इन दोनों संबंधों से कई प्रकार से समझाया और अनुरोध किया और अंत को कहने लगी कि मुक्ता! नहीं नहीं, तू मुझे छोड़कर सती मत हो। तू तो रह। तुम सब लोगों का भार