पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/११३

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और उसके धर्म तथा दान रूपी अमृत फलों का स्वाद केवल उनकी प्रजा ही ने नहीं चखा था वरन् इस भारत के चहुँ ओर रहनेवाले मनुष्यों को भी प्राप्त हुआ था। आज दिन भी उस विशाल वृक्ष की मुरझाई हुई कलमें सारे भारत में दृष्टिगत होती हैं और उनमें धर्म रूपी जल का नित्य सिंचन होता चला जा रहा है।

अहिल्याबाई ने कौन कौन से धार्मिक कार्य कब कब किये थे, इसका सपूर्ण ब्योरा उनके राज्य के दफ्तर में भी नहीं पाया जाता। और इसका लेखा रखना उस चतुर और बुद्धिमान बाई ने उचित भी नहीं समझा होगा। इसके दो कारण समझ में आते हैं। पहला कारण तो यह जान पड़ता है कि बाई ने जिस जिस स्थान पर देव मंदिर, अन्नसत्र अथवा सदावर्त स्थापित किये हैं वहाँ के ब्राह्मण अथवा व्यवस्थापकों को प्रति वर्ष राजधानी में आकर व्यय के हितार्थ द्रव्य माँगना अथवा दूर दूर से नाना प्रकार के कष्ट सहन करके आना उचित न समझ कर उन्हीं स्थानों पर उनके खर्च के निमित्त गाँव, जमीन, मकान आदि बंधवा कर व्यवस्था कर दी हैं जो आज दिन तक विद्यमान है और उनका खर्च नियमित रूप से चलता आया है और चलता रहेगा। दूसरा कारण यह भी प्रतीत होता है जो कि अहिल्याबाई सरीखी दूरदर्शिता और बुद्धिमती के लिये अनुचित भी न था— कि मेरे जीवन के पश्चात् इन सुकृत कार्यों में कोई हस्तक्षेप न कर सके, और ये ही उपर्युक्त कारण सत्य भी जाने पड़ते हैं। बाई का स्वर्गवास हुए आज लगभग १२५ वर्ष होते हैं।