पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१०८

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झूठ बोलता अथवा किसी के मिथ्या बरताव का बाई को पता लग जाता था तो ये उस व्यक्ति से अधिक अप्रसन्न रहती थीं। इनके मन की वृत्ति सदा शांत और प्रफुल्लित रहा करती थी। बाई अपने शरीर के वस्त्राभूषणों के शृंंगार की अपेक्षा अपने अंतःकरण को विवेक, विचार तथा राजनीति से भूषित रखती थीं ।

अहिल्याबाई के क्षमाशील और धरमात्मा होने की बात सारे भारतवर्ष में गूँँज रही है और विशेष कर तीर्थस्थानों में आज दिन भी इस बात को स्पष्ट रूप से सत्यता की कसौटी पर कसने के लिये, देव-मन्दिर, धर्मशालाएँ आदि विद्यमान हैं । वे सदा शांत, सौम्य और प्रसन्न रहती थीं । तुकोजी सदा इनको मातेश्वर कह कर सवाघन किया करते थे और सर्व काल उनकी आज्ञा के पालन करने में तत्पर रहा करते थे । बाई भी इनपर पुत्रवत् लाड़ चाव रखती थीं । एक समय तुकोजी ने बाई से सस्नेह आग्रहपूर्वक निवेदन किया कि आप अपनी तस्वीर ( प्रतिमा ) तैय्यार कराने की मुझे आज्ञा दें । इसपर बाई ने बड़े प्रेमयुक्त वचनों से कहा कि देवताओं की प्रतिमा बनवाने से सब लाभ होता है । मनुष्यों की मूर्ति से क्या लाभ होगा ? तथापि तुकोजी के अधिक अनुराध से बाई ने जयपुर से एक चतुर और कुशल कारीगर को बुलवा अपनी मूर्तियाँ बनवाई और उनको इंंदौर, प्रयाग, नासिक, गया, अयोध्या और महेश्वर आदि स्थानों के मंदिरों में रखवाया था । बाई इन मूर्तियों को देख अत्यत प्रन्नस हुई थीं। इस संबंध में मालकम साहब लिखते हैं कि--"प्राचीन काल