क्षमता रखता हो, वह हम से रुपए वसूल कर ले। यह उत्तर पाकर तुकोजी दौलतराम का अभिप्राय समझ गए और अपनी सेना के साथ जयपुर की ओर चल पड़े। पर बीच ही में जिऊआ दादा ने उन पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में तुकोजी के कई साहसी सेनापती काम आए और तुकाजी को विवश हो पीछे हटना पड़ा। जब तुकोजी ने जयपुर से बाईस कोस की दूरी पर ब्राह्मण गाँव नामक स्थान में आ कर वहा के दृढ़ दुर्ग में आश्रय लिया, उस समय बाई महेश्वर में थीं। तुकोजी ने बाई को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने बाई से धन और सेना भेजने के लिये प्रार्थना करते हुए वहाँ का संपूर्ण हाल लिख भेजा था। उस पत्र के पाते ही बाई क्रोधाग्नि में तप्त हो काँपने लगी और बोली कि इस अपमान से मुझे इतना दुःख हुआ है, जितनी तुकोजी के मरने का भी नहीं होता। इतना कहकर बाई ने उसी समय अपने कोष से पाँच लाख रुपए तुकोजी के पास पहुँचाए और एक पत्र में लिख दिया कि तुम किसी प्रकार विचलित न होना, मैं यहाँ से रुपए और सेना का पुल बांधे देती हूँ। परंतु जिस प्रकार से हो उस कृतघ्न का दमन करें। और यदि तुम अपना साहस गँवा चुके हो तो लिखो, मैं इस बुढ़ापे में स्वयं रणक्षेत्र में आकर उपस्थित हो युद्ध करूँगी। कुछ दिन बाद अहिल्याबाई ने तुकोजी के सहायतार्थ १८०० सेना भेज दी। सेना के पहुंचते ही तुकोजीराव ने पुनः युद्ध की घोषणा की और अंत को जय प्राप्त कर अहिल्याबाई को आकर प्रणाम किया।
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