हम पहले ही कह आए हैं कि चंद्रावत इसी गाँव में रहता था। जब उसको यह मालूम हुआ कि अब हम होलकर के अधीन हो चुके हैं और उसकी प्रजा कहलाते हैं, तो उसको दूसरे की पराधीनता में होकर रहना अत्यंत अनुचित जान पड़ा, परंतु मल्हारराव होलकर के सामने चंद्रावत चूँ तक नहीं कर सकता था। पर उसने मन ही मन इस पराधीनता को नष्ट करने का संकल्प कर लिया था और सुअवसर मिलने की बाट जोह रहा था। दैवयोग से मल्हारराव का स्पर्गवास हो गया और जय अहिल्याबाई ने राज्य शासन का भार अपने हाथ में लिया, उस समय चंद्रावत की क्रोधाग्नि जे बहुत दिनों से उसके अंतःकरण को भस्म कर रही थी, एकाएक प्रज्वलित हो उठी। उसने रामपुर के समस्त राजपूतो को अपनी ओर होने के लिये उत्तेजित किया और नाना प्रकार की ऊँच नीच बातें सुनाकर उनको बाई के विरुद्ध युद्ध करने पर उतारू कर दिया। इस समय उदयपुर की गद्दी का अधिकारी जगतसिंह का लड़का अरिसिंह था। उसको भी चंद्रावत ने अपने पक्ष पर उत्तेजित कर युद्ध में धन और सेना की मदद देने पर राजी कर लिया। यह युद्ध ईसवी सन् १७७१ में जनवरी से आंरभ हो मार्च तक मंदसोर के पास होता रहा और इस युद्ध में दोनों ओर के अनेक वीर काम आए। आने में तुकोजी ने चंद्रावत पर विजय प्राप्त की थी।
अहिल्याबाई ने अपने भांडार के संपूर्ण धन पर गद्दी पर बैठते समय ही तुलसी दल रख उसको कृष्णार्पण कर दिया था और यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि संपूर्ण-