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अहङ्कार

घनतृष्णा से लोलुप होकर फिर आई वो लोलस ने उसे कैद करा दिया न्यायाधिकारियों को ज्ञात हुआ कि वह कुटनी है, भोली लड़कियों को वहका ले जाना ही उसका उद्यम है तो उसे प्राणदंड, दे दिया और वह जंगली जानवरों के सामने फेंक दी गई।

लोलस अपने अखण्ड, सम्पूर्ण, कामना से थायस को प्यार करता था। उसकी प्रेमकल्पना ने विराट रूप धारण कर लिया था, जिससे उसकी किशोर चेतना सशंक हो जाती थी। थायस शुद्ध अन्तःकरण से कहती—

मैंने तुम्हारे सिवाय और किसी से प्रेम नहीं किया।

लोलस जवाव देता—तुम संसार में अद्वितीय हो। दोनों पर छः महीने तक यह नशा सवार रहा। अन्त में टूट गया। थायस को ऐसा जान पड़ता कि मेरा हृदय शून्य और निर्जन है। वहाँ से कोई चीज ग़ायब हो गई है। लोलस उसको दृष्टि में कुछ और मालूम होता था। वह सोचती—

'मुझमें सहसा यह अन्तर क्योंकर हो गया? यह क्या बात है कि लोलस अब और मनुष्यों का सा हो गया है, अपना-सा नहीं रहा? मुझे क्या हो गया है?

यह दशा उसे असह्य प्रतीत होने लगी। अखण्ड प्रेम के आस्वादन के बाद अब यह नीरस, शुष्क व्यापार उसकी तृष्णा को तृप्त न कर सका। वह अपने खोये हुए लोलस को किसी अन्य प्राणी में खोजने की गुप्त इच्छा को हृदय में छिपाये हुए, लोलस के पास से चली गई। उसने सोचा प्रेम रहने पर भी किसी पुरुष के साथ रहना उस आदमी के साथ रहने से कहीं सुखकर जिससे अब प्रेम नहीं रहा। वह फिर नगर के विषय-भोगियों के साथ उन धर्मोत्सवों में जाने लगी जहाँ वस्त्रहीन युवतियाँ। मन्दिरों में नृत्य किया करती थीं, या जहां वेश्याओं के ग़ोल के