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अहंङ्कार

बीच में मेरे छोटे भाई का उस स्त्री से कलुषित सम्बन्ध हो गया। लेकिन वह स्त्री दोनों भाइयों में किसी को भी न चाहती थी। उसे एक गवैये से प्रेम था। एक दिन भेद खुल गया। दोनों भाइयों ने गवैये का वध कर डाला। मेरी भावज शोक से अव्यवस्थित- चित्त हो गई। यह तीनों अभागे प्राणी बुद्धि को वासनाओं की खलिवेदी पर चढ़ाकर शहर की गलियों में फिरने लगे। नंगे, सिर के बाल बढ़ाये, मुँह से फिचकुर बहाते, कुत्तों की भाँति चिल्लाते रहते थे। लड़के उन पर पत्थर फेंकने और उन पर कुत्ते दौड़ाते। अन्त में तीनों भर गये और मेरे पिता ने अपने ही हाथों से उन तीनों को कब्र मे सुलाया। पिताजी को भी इतना शोक हुआ कि उनका दाना-पानी छुट गया और वह अपरिमित धन रहते हुए भी भूख से तड़प-तड़पकर परलोक सिधारे। मैं एक विपुल-सम्पत्ति का वारिस हो गया। लेकिन घरवालों की दशा देखकर मेरा चित्त संसार से विरक्त हो गया था। मैंने इस सम्पत्ति को देशाटन में व्यय करने का निश्चय किया। इटली, यूनान, अफ्ऱीका आदि देशों की यात्रा की; पर एक प्राणी भी ऐसा न मिला जो सुखी या ज्ञानी हो। मैंने इस्कन्द्रिया और एथेन्स में दर्शन का अध्ययन किया और उसके अपवादा को सुनने मेरे कान बहरे हो गये। निक्षन देश-विवश घूमता हुआ मैं भारतवर्ष मे जा पहुॅचा और वहाॅ गगा-तट पर मुझे एक नम पुरुष के दर्शन हुए जो वही ३० वर्षों से मूति की भाँति निश्चल पद्मासन लगए बैठा हुआ था। उसके तणवत् शरीर पर लगाये चढ़ गई थी और उसकी जटाओं में चिड़ियों ने घोंसले बना लिए थे। फिर भी वह जीवित था। उसे देखकर मुझे अपने दोनों भाइयों की, भावज की, गवैये की, अपने पिता की, याद आई और तब मुझे ज्ञात हुआ कि यही एक मानी पुरुष है। मेरे मन मे विचार उठा कि मनुष्यों के दुःख के