यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६
अहङ्कार

इस प्रकार पाषाण हृदय में भक्ति का बीज, आरोपित करके पापनाशी ने अपनी राह ली। थोड़ी दूर के बाद घाटी चौड़ी हो गई। वहाँ किसी बड़े नगर के अवशिष्ट चिन्ह दिखाई दिये। बचे हुए मन्दिर जिन खम्भों पर अवलम्बित थे उन वास्तव में बड़ी-बड़ी पाषाण-मूर्तियों ने ईश्वरीय प्रेरणा से पापनाशी पर एक लम्बी निगाह डाली। वह भय से कांप उठा। इस प्रकार वह १७ दिन तक चलता रहा, तुषा से व्याकुल होता तो वनस्पतियाँ उखाड़ कर खा लेता और रात को किसी भवन के खड़हर मे, जंगली बिल्लियों और चूहों के बीच मे सो रहता। रात को ऐसी स्त्रियाँ भी दिखाई देती थीं जिनके पैरों की जगह कॉटेदार पूँछ थी। पापनाशी को मालूम था कि यह नारकीय स्त्रियाँ है और वह सलीव के चिन्ह बनाकर भगा देता था।

अठारहवें दिन पापनाशी को बस्ती से बहुत दूर एक दरिद्र झोपड़ी दिखाई दी। वह खजूर के पतियों की थी और उसका आषा, भाग बालू के नीचे दबा हुआ था। उसे प्राशा हुई कि इसमे अवश्य,कोई साधु-संत रहता होगा। उसके निकट पाकर एक बिल के रास्ते से अन्दर माँका (उसमें चार न थे) तो एक घड़ा, प्याज का एक गट्ठा और सूखी पत्तियों का विछावन दिखाई दिया। उसने विचार किया यह अवश्य किसी तपस्वी की कुटिया है, और उनके शीघ्र ही दर्शन होंगे। हम दोनों एक दूसरे के प्रति शुभकामना सूचक पवित्र शब्दों का उच्चारण करेंगे। कदाचित् ईश्वर अपने किसी कौए द्वारा रोटी का एक टुकड़ा हमारे पास भेज देगा और हम दोनों मिलकर भोजन करेंगे।

मन में यह बात सोचता हुआ उसने खेल को खोजने के लिए कुटिया की परिक्रमा की। एक सौ पग भी न चला होगा कि उसे नदी के तट पर एक मनुष्य पल्थी मारे बैठा दिखाई दिया। वह