लेकिन अभी तक उसके हृदय में इस वाक्य-वाण की नोक निरन्तर चुभ रही थी—
'थायस मर रही है!'
फिर वह प्रेमोन्मत्त होकर कहने लगा—
ओ दिन के उजाले, ओ निशा के आकाश-दीपकों की रौप्य छटा, ओ आकाश, ओ झूमती हुई चोटियोंवाले वृक्षो, ओ वनमन्तुओ, ओ गृहपशुओ, 'ओ मनुष्यों के चिन्तित हृदयो ! क्या तुम्हारे कान बहरे हो गये है, तुम्हे सुनाई नहीं देता कि थायस मर रही है ? मन्द समीरण, निर्मल प्रकाश, मनोहर सुगन्ध ! इनकी अन क्या ज़रूरत है ? तुम भाग जाओ, लुप्त हो जाओ ! ओ भूमण्डल के रूप और विचार ! अपने मुँह छिपा लो, मिट जाओ। क्या तुम नहीं जानते कि थायस मर रही है ? वह ससार के माधुर्य का केन्द्र थी, जो वस्तु उसके समीप आनी थी वह उसकी रूपज्योति से प्रतिबि म्बित होकर चमक उठती थी। इस्कन्द्रिया के भोज में जितने विद्वान, ज्ञानी, वृद्ध उसके समीप बैठे थे, उनके विचार कितने चित्ताकर्षक थे, उनके भाषण कितने सरस! कितने हँसमुख लोग थे! उनके अधरों पर मधुर मुसक्यान की शोभा थी और उनके विधार आनन्द-भोग के सुगन्ध मे डूबे हुए थे। थायस की छाया उनके ऊपर थी इसलिए उनके मुख से जो कुछ निकलता वह सुन्दर, सत्य और मधुर होता था! उनके कथन एक शुभ्र अभक्ति से अलंकृत हो जाते थे। शोक, हा शोक ! वह सब अब स्वप्न हो गया । उस सुखमय अभिनय का अंत हो गया, थायस मर रही है ! वह मौत मुझे क्यों नहीं आती ! उसकी मौत से मरना मेरे लिये कितना स्वाभाविक और सरल है ! लेकिन ओ अभागे, निकम्मे, कायर पुरुष, ओ निराशा और विषाद में डूबी हुई