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अहङ्कार

जो बीच से काट लिये गये हों। सभों की बनावट एक सी थी, मानो एक ही इमारत की बहुत-सी नक़लें की गई हो । वास्तव में यह सब क़ब्रें थीं। उनके द्वार खुले और टूटे हुए थे, और उनके अन्दर भेड़ियों और लकड़भग्गों की चमकती हुई आंखें नजर आती थीं, जिन्होंने वहाँ बच्चे दिये थे। मुर्दे क़ब्रों के सामने बाहर पड़े हुए थे जिन्हे डाकुओं ने नोच-खसोट लिया था और जंगली जानवरों ने जगह-जगह चना डाला था। इस मृतपुरी मे बहुत देर तक चलने के बाद पापनाशी एक क़ब्र के सामने थककर गिर पड़ा, जो छारे के वृक्षों से ढके हुए एक सोते के समीप थी। यह क़ब्र खूब सजी हुई थी, उसके ऊपर बेल-बूटे बने हुए थे, किन्तु कोई द्वार न था। पापनाशी ने एक छिद्र में से झांका तो अन्दर एक सुन्दर, रँगा हुआ तहखाना दिखाई पड़ा जिसमे साँपों के छोटे-छोटे बच्चे इधर-उधर रेंग रहे थे। उसे अब भी यही शका हो रही थी कि ईश्वर ने मेरा हाथ छोड़ दिया है, और अब मेरा कोई अवलम्य नहीं है।

उसने एक दीर्घ निश्वास लेकर कहा—

इसी स्थान में मेरा निवास होगा। यही क़ब्र अब मेरे प्राय- शिश्चत्त और प्रात्मदमन का आश्रय-स्थान होगी।

उसके पैर तो उठ न सकते थे, लेटे-लेटे खिसकता हुआ वह अन्दर चला गया, सांपों को अपने पैरों से भगा दिया और निरन्तर अठारह घन्टों तक पक्की भूमि पर सिर रखे हुए औधे मुँह पड़ा रहा। इसके पश्चात् वह उस जलस्रोत पर गया और चिल्लू से पेट भर पानी पिया। तब उसने थोड़े छुहारे चोड़े और कई कमल की बेलें निकालकर कमलगट्टे जमा किये। यही उसका भोजन था। सुधा और तृषा शांत होने पर उसे ऐसा अनुमान हुआ कि यहाँ वह सभी विघ्न-बाधाओं से मुक्त होकर