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अहङ्कार

ज़ेनाथेमीज़-डोरियन, तुम्हारी शंका निर्मूल है। तुम्हें यह नहीं मालूम है कि जीवन और मृत्यु से सर्वोच्च और गूढ़तम रहस्य बुद्धि और अनुमान द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते, बल्कि अन्तर्ज्योति द्वारा किये जाते हैं। यही कारण है कि स्त्रियाँ जो पुरुषों की भाँति सहनशील नहीं होती हैं पर जिनकी चेतनाशक्ति अधिक तीव्र होती है, ईश्वर-विषयों को आसानी से समझ जाती हैं। स्त्रियों को सद्स्वप्न दिखाई देते हैं, पुरुषों को नहीं।स्त्री का पुत्र या पति दूर देश में किसी संकट में पड़ जाय तो स्त्री को तुरन्त उसकी शंका हो जाती है। देवताओं का वस्त्र स्त्रियों का-सा होता है, क्या इसका कोई आशय नहीं है? इसलिए सर्प की यह दूरदर्शिता थी कि उसने ज्ञान का प्रकाश डालने के लिए मन्दबुद्धि आदम को नहीं, बल्कि चैतन्यशीला हौवा को पसन्द किया, जो नक्षत्रों से उज्ज्वल और दूध से स्निग्ध थी। हौवा ने सर्प के उपदेश को सहर्ष सुना और ज्ञानवृक्ष के समीप जाने पर तैयार हो गई, जिसकी शाखायें स्वर्ग तक सिर उठाये हुए थीं और जो ईश्वरीय दया से इस भाँति आच्छादित था, मानों ओस की बूंदों में नहाया हुआ हो। इस वृक्ष की पत्तियाँ समस्त संसार के प्राणियों की बोलियाँ बोलती थीं, और उनके शब्दों के सम्मिश्रण से अत्यन्त मधुर संगीत की ध्वनि निकलती थी। जो प्राणी इसका फल खाता था उसे खनिज पदार्थों का, पत्थरों का, वनस्पतियों का, प्राकृतिक और नैतिक नियमों का, सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता था लेकिन इसके फल अग्नि के समान थे और संशयात्मा, भीरु प्राणी भयवश उसे अपने ओठों पर रखने का साहस न कर सकते थे। पर हौवा ने तो सर्प के उपदेशों को बड़े ध्यान से सुना था, इसलिए उसने इन निर्मूल शंकाओं को तुच्छ समझा और उस फल को चखने पर उद्यत हो गई जिससे ईश्वरज्ञान प्राप्त हो