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अहङ्कार

चरणों से पवित्र किया है। श्रद्धेय सन्त पापनाशी, जो मरुस्थल में एकान्त निवास और तपस्या करते हैं आज संयोग से हमारे मेहमान हो गये हैं।

कोटा-मित्र ज़ेनाथेमीज़, इतना और बढ़ा दो कि उन्होंने बिना निमन्त्रित हुए यह कृपा की है, इसलिए उन्हीं को सम्मानपद की शोभा बढ़ानी चाहिए।

ज़ेनाथेमीज़-इसलिए, मित्रवरो, हमारा कर्तव्य है कि उनके सम्मानार्थ वही बाते करें जो उनको रुचिकर हों। यह तो स्पष्ट है कि ऐसा त्यागी पुरुष मसालों के गन्ध को उतना रुचिकर नहीं समझता जितना पवित्र विचारों के सुगन्ध को। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जितना आनन्द उन्हें ईसाई धर्म-सिद्धातों के विवेचन से प्राप्त होगा, जिनके वह अनुयायी हैं, उतना और किसी विषय से नहीं हो सकता। मैं स्वयं इस विवेचन का पक्षपाती हूँ क्योंकि इसमें कितनी ही सर्वाङ्ग सुन्दर और विचित्र रूपकों का समावेश है जो मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। अगर शब्दों से आशय का अनुमान किया जा सकता है, तो ईसाई सिद्धान्तों मे सत्य की मात्रा प्रचुर है और ईसाई धर्मग्रन्थ ईश्वरज्ञान से परिपूर्ण हैं। लेकिन सन्त पापनाशी, मैं यहूदी धर्मग्रन्थों को इनके समान सम्मान के योग्य नहीं समझता। उनकी रचना ईश्वरीय ज्ञान द्वारा नहीं हुई है, पर एक पिशाच द्वारा, जो ईश्वर का महान् शत्रु था। इसी पिशाच ने, जिसका नाम 'आइवे' था, उन ग्रन्थों को लिखवाया। वह इन दुष्टात्माओं मे से था जो नरकलोक में बसते हैं और उन समस्त विडम्बनाओं के कारण हैं जिनसे मनुष्यमात्र पीड़ित हैं। लेकिन आइवे अज्ञानता, कुटिलता और क्रूरता में उन सबों से बढ़कर था। इसके विरुद्ध सोने के परों का सा सर्प जो ज्ञान वृक्ष से लिपटा हुआ था प्रेम और प्रकाश से बनाया गया था। इन दोनों