अलंकारचंद्रिका 1 ५-दो०-मंत्र परम लघु जासु बस विधि हरि हर सुर सर्व । महामत्त गजराज कहँ बस. कर अंकुस खर्व । तीसरी दो०-प्रतिबंधक के होत हू होय काज जेहि ठौर । १-अति विचित्र गर्गात रावरी जग जाहर जसवंत । . तेज छत्रधारीन है असहन ताप करंत ॥ २-रखवारे हति बिपिन उजारा । देखत तोहि अछय तेहि मारा। ३-दो०-नैना नेक न मानही कितो कहौं समुझाएँ । ये मुंहजोर तुरंग लौ ऐचत हूँ चलि जाय ॥ ४-दो-तुव बेनी नागिन रहै बांधी गुनन बनाय । तऊ बाम व्रजवंद को बदाबदी डसि जाय ॥ सूचना-तऊ, तोभी, इस अलंकार के वाचक हैं । चौथी दो०-जाको कारन जो नहीं उपजत ताते तीन । १-चंपक की लतिका में मुबास जुमालती की पसरै मुखदैन री। कौल के कोस ते गंध गुलाब की श्रावत है लहि दायक चैन री। 'गोकुलनाथ' कुहू निसि में यह रोका की राति की दाहऽब है न री। देखु कपोत के कंठ ते आली कढ़े कल कोकिल की बर बैन री॥ २-दो०-भयो कंबु ते कंज इक सोहत सहित बिकास। देखहु चंपक की लता देत गुलाब सुबास ॥ ३-क्यों न उतपात होइ बैरिन के झंडन में कारे धन उमड़ि अंगारे बरसत हैं। ४-भयो तात निसिचरकुलभूषन । ५-बीना नाक जु संख सों होत सुनौ दै ध्यान ।
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