पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/७८

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अलंकारचंद्रिका इसमें कवि के इच्छित अर्थ के अलावा यह भी भासित होता है कि किसी चंचल व्यक्ति को बँधुवा बनाने के व्यवहार में किवाड़ों को बंद कर देना होता है। २-"कुमुदिन हू प्रमुदित भई साँझ कलानिध जोय ।" इसमें कवि का इच्छित अर्थ तो यह है 'संध्या समय में चन्द्रमा को देखकर कुमुदिनी फूली।' परन्तु इससे किसी नायिका की दशा की भी सूचना मिलती है। (श्लिष्ट शब्दों द्वारा) १-बड़ो डील लखि पील को सवन तज्यो बन थान । धनि सरजा तू जगत में ताको हसो गुमान ॥ इसमें 'सरजा' शब्द श्लिष्ट है । इसका अर्थ है (१) सिंह और (२) शिवाजी का एक खिताब होने के कारण स्वयं शिवाजी । कवि की इच्छा सिंह वर्णन की है। परंतु 'सरजा' शब्द श्लिष्ट होने के कारण इसमें शिवाजी और औरंगजेब के व्यव- हार का भी भान होता है। २-तुही साँच द्विजराज है तेरी कला प्रमान । तो पैसिव किरपा करी जानत सकल जहान ॥ इसमें कवि का इच्छित तात्पर्य तो चन्द्रमा की प्रशंसा है, परन्तु 'द्विजराज' और 'शिव' शब्द श्लिष्ट होने से भूषण कवि और शिवाजी के व्यवहार का भान होता है। ३- भूषन' जो करत न जाने बिनु घोर सोर भूलि गये आपनी उंचाई लखे कद की । खोइयौ प्रबल मदगल गजराज एक सरजा सों बैर के बढ़ाई निज मद की ॥ यहाँ भी कवि की इच्छा हाथी के वर्णन की है, परन्तु पहले उदाहरण की तरह इसमें भी शिवाजी और औरंगजेब के व्यव- हार का भान होता है।