पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/७२

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अलंकारचंद्रिका वासन बाँस कठोती हुती श्री फाटी दुपटी जेहि बीतत सीवत । 'गोकुल' छानी सरी गरी भीति रहे जित बृहन के गन जीवत । धाम सुदाम लोः हरि सो जहि देखिये देखि दिगंपति भीक्त । बैठि जिते गन चातक के घन ते बन चोंच चनार के पीवत । इसमें चातक और धन के संबंध द्वारा यह प्रकट किया है कि सुदामा का मंदिर बहुत ऊँचा था। कोई घर इतना ऊंचा नहीं होता, परन्तु यहाँ धन और चातक के संबंध मे अयोग्य-घर -में भी अतिशय ऊँचाई की योग्या कथन की गई है। सूचना-संबंधातिशयोक्ति' का कविता में बहुत अधिक काम पड़ता है । इस अलंकार के बहुन प्रचलित उदाहरण यों कहे जाते हैं कि 'इसका वर्णन शेप शारदा भी नहीं कर सकते, वेद भी नति-नति कहता है। यथा- जेहि बर वाजि राम असबारा । तेहि सारदौ न बरनै पाग। सारद श्रुति सेषा ऋषय असेपा जा कह कोउ नहिं जाना ।। दो०--जो मुख मा सिय-मातु मन देवि गम वर भेष । सो न सकहिं कहि कल्प सत सहस सारदा मेष ॥ कोटिहु बदन नहिं बनै बग्नत जगजननि सोभा महा। सकुहि कहत श्रुति सेस साग्द् मंदमति तुलसी कहा ? इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि शेष, सारदा, श्रुति इत्यादि को कथन के अयोग्य ठहराकर उनके सम्बन्ध म प्रस्तुत में अतिशयोक्ति की स्थापना की जाती है। ३-चपलातिशयोक्ति दो०- 10--कारन के लखतहि सुनत कारज आसुहिं होय । चपला अतिशय उक्ति यह अलंकार है सोय ॥