पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/६५

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उत्प्रेक्षा भर में अपना यश और प्रताप नहीं फैलाता ( उसका कारण कुछ और ही होता है ।। घोर निरधनता सुदामा घर बास कीन्हों, दारुन कलेश दै दै दीन को सतायो है। संमति लै बाम की सिधायो द्विज स्याम पास, भेट करि तंदुल अखंड धन पायो है। 'पूरन' जु मानो भई द्वारका गया की पुरी, जाय बिप्र जामै मनमानो फल पायो है। दारिद पिशाच मानि आखत निमंत्रण को, संग जाय तरिगो न फेरि भौन आयो है। 'गया' में तर जाना सिद्धास्पद हेतु है। दरिद्ररूपी पिशाच के लौटकर न आने का वही हेतु कहा गया है। (२) असिद्धास्पद हेतूत्प्रेक्षा जहाँ उत्प्रेक्षा का कथित हेतु असंभव हो । जैसे-- १-मुख सम नहिं याते मनो चंदहि छाया छाय। राधिका के मुख के समान नहीं है, इससे मानों चन्द्रमा में छाया ( काला दाग ) छाई हुई है। यहाँ भी अहेतु को हेतु ठहराया है, अतएव असिद्ध आधार है। २-पूस दिनन में है रह्यो अगिन कोन मैं भानु । मैं जानो जाडो बली ते वह डरै निदानु । सूर्य का जाड़े से डरना असिद्ध आधार है। और डर के कारण सूर्य पूस में अग्निकोण में ( जाड़े से डरकर अग्नि तापने के लिये ) चला आता है, यह कारण ठीक नहीं। ३--तुव चख निरखि लजाय मनु किय बनबास मृगीन । कुबलय रहत मलीन दिन रहै पैठि जल मीन ।