अपनुति ठीक विरोधी है । उसमें सत्य कहकर भ्रम दूर किया जाता है और इसमें सत्य को छिपाकर असत्य बातें कहकर शंका दूर करने की चेष्टा की जाती है (चाहे वह शंका दूर हो वा न हो)। जैसे- साँवरो सलोना गात पोतपट सोहत सो, अंबुज से आनन पै परै छवि ढरकी। मंत्र ऐसी जंत्र ऐसी तंत्र सी तरकि परे, हँसनि चलनि चितवनि त्यो सुघर की। 'गोकुल' कहत बन कुंजन को बासी लखे, हाँसी की करतु है री काम कलाधर की। एतने में बोली और मिले हरि सुखदानी ? नाहीं मैं कहानी कही रामरधुवर की। यहाँ कोई गोपी कृष्ण की छवि का वर्णन कर रही थी, एक अन्य स्त्री ने आकर पूछा कि क्या तुझे कृष्ण मिले थे, तब वह सत्य बात कृष्णदर्शन को छिपाकर कहती है कि नहीं, मैं तो राम की कथा कह रही थी। पुनः-कछु न परीक्षा लीन्ह गुसाई । कीन्ह प्रनाम तुम्हारिहि नाई। सूचना-'मुकरी' इसी अलंकार में कही जाती है जैसे- १-अर्द्धनिशा वह अायो भौन । सुन्दरता बरनै कहि कौन । निरखत ही मन भयो अनंद । क्यों सखि साजन नहिं सखि चंद ॥ २-सोभा सदा बढ़ावन हारा। आँखिन ते छिन करौं न न्यारा। आठ पहर मेरो मनरंजन । क्यों सखि साजन? नहिं सखि अंजन॥ ६-कैतवापनुति दो०-मिसब्याजादिक शब्द दै, कहैं आन को आन । ताहि कैतवापह्नुति, भूषन कहैं सुजान ॥ यथा-
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