पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/५८

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अलंकारचंद्रिका पुनः-नहीं सक्र सुरपति अहैं सुरपति नंदकुमार । रतनाकर सागर न है मथुरा नगर बजार ॥ यह न चाँदनी चाँदनी मृदु विहँसनि नँदलाल । पुनः-मीन में नहिं प्रीति सजनी पंक में नहिं प्रेम । एक मति गति एक व्रत यह भरत ही में नेम ॥ सो० to-कालकूट विष नाहि, बिष है केवल इंदिरा । हर जागत छकि वाहि, यहि सँग हरि नींद न तजत ॥ सूचना-प्रायः यह देखा जाता है कि इस अलंकार के उदाहरणों में जिस वस्तु के सच्चे धर्म को छिपाना होता है उसे दो बार लाना पड़ता है। उदाहरणों में देखो कि सुधा, सुरपति, चाँदनी और विप शब्द दो-दो बार आये हैं। ४-भ्रांत्यपहनुति दो०- 10-भ्रम संका मन और के कछु कारन ते होय । दूरि करै कहि सत्य सों भ्रांत्यापहनुति सोय ॥ यथा-कह प्रभु हँसि जनि हृदय डराहू । लूक न अशनि न केतुन राहू॥ ये किरीट दसकंधर केरे । आवत बालितनय के प्रेरे ॥ दो०-बेसर मोती दुति झलक परी अधर पर प्राय । चूनों होय न चतुर तिय क्यो पट पोंछो जाय ॥ दो०-प्राली लाली लखि डरपि जनि टेरहु नंदलाल । फूले सघन पलास ये नहिं दावानल ज्वाल ॥ ५-छेकापर्तुति दो०-संका नासै और की साँची बात दुराय । छेकापनुति कहत हैं ताहि कबिन के राय ॥ विवरण-(छेक = चतुराई ) यह अलंकार भ्रांत्यपढ्नुति का