अपहर्तुति ५१ सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है 1 कि सारी ही की नारीहै कि नारीही कि सारी है ये कौन कहाँ ये आये। मुनिसुत किधौं भूपबालक किधौं ब्रह्म जीव जग जाये। रूपजलधि के रतन, सुछबि तियलोचन ललित ललाये। किधौरविसुवन, मदन ऋतुपति किधौं, हरिहर वेष बनाये। किधौं आपने सुकृत सुरतरु के सुफल रावरे पाये। यह अलंकार फारसी, अरबी तथा उर्दू के 'तजाहुलभारिफ' नामक अलंकार से मिलता-जुलता है। ११–अपड्नुति दो०-मिथ्या कीजै सत्य का सत्य जु मिथ्या होत । आपहृति षट भेद को वरनत हैं कवि गोत॥ सुद्ध हेतु परजस्त, भ्रम, छेका, कैतव देखि । 'ना' बाचक है पाँच को, कैतव की 'मिस' लेखि ॥ विवरण-'अपहृति' शब्द का अर्थ है 'छिपाना'। इसलिये इस अलंकार में किसी बात का छिपाना और कोई अन्य बात कहके दूसरे का संतोष कर देना यही वर्णन रहता है। इसके ६ भेद हैं जिनमें से प्रथम पाँच में निषेधवाची 'न' 'नहीं' का प्रयोग अनिवार्य है और अंतिम 'कैतवापहृति' में 'मिस' शब्द का प्रयोग अवश्य ही होता है। बस इन्हीं वाचक शब्दों से इस अलंकार की ठीक पहचान हो जाती है।
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