रूपक १-सुनुगिरिराजकुमारि भ्रमतम रबिकर बचन मम । २-बदौं रघुपति करुनानिधान । जाते छूटै भवभेद ज्ञान । क-रघुबंस कुमुद सुखप्रद निसेस । सेवित पदपंकज अज महेस । ख-निज भक्तहृदय पाथोजग । लावन्य बपुष अगनित अनंग । ग-अति प्रबल मोह तम-मारतंड। अज्ञान-गहन पातक-प्रचंड । घ-अभिमान-सिंधु कुंभज उदार। सुररंजन भंजन-भूमिभार । ङ-रागादि-सर्पगन-पन्नगारि । कंदर्प-नाग मृगपति मुरारि । च-भवजलधि-पोत चरनारविंद । जानकीरमन आनन्दकंद । छ-हनुमंत-प्रम-बापी-मराल । निष्काम कामधुक गो दयाल । ज-त्रैलोक्यतिलक गुनगहन राम । कह 'तुलसिदास' बिस्राम धाम। इस पद में क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, सब में परंपरित रूपक है। पुनः- (क) मोह महा-धन-पटल-प्रभंजन ।संसय-बिपिन-अनल सुररंजन । अगुन सगुन गुनमंदिर सुंदर ।भ्रमतम-प्रबल-प्रताप-दिवाकर। (ख) काम-क्रोध-मद-गजपंचानन । बसहु निरंतन जन-मन-कानन। विषय-मनोरथ-पुंज-कंज-बन । प्रबल तुषार-उदार यह परंपरित रूपक कभी-कभी श्लेष से भी कहा जाता है। जैसे- (१) संकर-मानस-राजमराला । यहाँ जबतक 'मानस' शब्द में श्लेष न मानें और उसके दो अर्थ (१) मन तथा (२) मानससरोवर न लें तब तक रूपक. का चमत्कार नहीं भासेगा। (२) अंगद तुहीं बालिकर बालक । उपजे बंस अनल कुल घालक । इसमें जबतक 'वंश' शब्द के श्लेष से दो अर्थ (१) बास और (२) कुल न लिये जायँ, तब तक कोई चमत्कार नहीं भासता। पारमन।
पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/५१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।