४४ अलंकारचंद्रिका कहे जा सकते हैं अर्थात्-(१) सांग (२) निरंग और (३)परंपरित । (३ 'सांग' रूपक वह कहलाता है, जिसमें कवि उपमान के समस्त अंगों का आरोप उपमेय में करता है । जैसे- पद-देखो माई सुंदरता को सागर । बुधि विवेक बल पार न पावत मगन होत मन नागर ॥१॥ तनु अतिस्याम अगाध अंबुनिधि कटि पटपीत तरंग । चितवत चलत अधिक छवि उपजत भँवर परत सब अंग ॥२॥ नैन मीन मकराकृत कुंडल, भुजवत्त सुभग भुजंग । मुकुतमाल मिलि मानो सुरसरि द्वै सरिता लिये संग ॥३॥ मोर मुकुट मनिगन आभूषन कटि किकिन नख चंद । मनु अडोल वारिध में विवित राका उडुगन बंद ॥४॥ बदन चंद्रमंडल की सोभा अवलोकत मुख देत। जनु जलनिधि मथि प्रकट कियो ससि श्री अरु मुधा समेत ॥५॥ देखि सरूप सकल गोपी जन रहों बिचारि बिचारि । तदपि 'सूर' तरि सकी न सोभा रहीं प्रेम पचि हारि ॥६॥ यहां सूरदास ने श्रीकृष्ण की छवि में समुद्र का रूपक सांगोपांग बाँधा है। इसी प्रकार तुलसीदास ने 'विनयपत्रिका' में काशीपुरी के लिये कामधेनु का सांग रूपक बाँधा है, जिसका प्रारंभ यों हैं-"सेइय सहित सनेह देह भरि काम- धेनु कलि कासी'। तुलसीदास ने अपने 'रामचरितमानस' ( रामायण ) के बालकांड में मानससरोवर का रूपक, लंका- कांड में विजयरथ' का रूपक और उत्तरकांड में 'ज्ञानदीपक' तथा 'मानसरोग' का सांग रूपक बहुत ही अच्छा कहा है। पाठकों को समझ लेना चाहिये
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