पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/४७

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रूपक ४३ तरल तिहारी तरवारिपन्नगी को कहूँ, तंत्र है न मंत्र है न जंत्र न जरी है। (हीन अभेद् रूपक) जहाँ उपमेय में उपमान से कुछ कमी दिखलाकर भी रूपक बाँधा जाय । यथा- दो०-महा दानि जाचकन को भाऊ देत तुरंग । पच्छन बिगर विहंग हैं मुंडन बिगर मतंग ॥ कलियुग सतयुग सो कियो खलदल सकल संहारि । भुवनभरनपोसनकरन दै भुजधर दनुजारि ॥ सब के देखत व्योमपथ गयो सिंधु के पार । पक्षिराज बिन पक्ष को बीर समीरकुमार ॥ पुनः-है राधे तू उरबसी, धरे मानुषी देह । (सम अभेद रूपक) जहाँ उपमेय ओर उपमान की पूर्ण रूप से एकरूपता वर्णन की जाय । यथा- रामकथा सुंदर करतारी। संसय-बिहग उड़ावनहारी ॥ कामना आठहु जाम फलै कलपद्रुम राम नरेस हमारे। दो०-नारि कुमुदिनी अवधसर रघुबरबिरह दिनेस। अस्त भये बिकसित भई निरखि राम राकेस ॥ संपति चकई भरत चक. मुनि श्रायसु खेलवार । तेहि निसि आश्रम पीजरा, राखे भा भिनुसार । सूचना-वास्तव में सच्चा और शुद्ध रूपक यही है। विवरण-अर्थनिर्णय, न्यायशास्त्र और व्याकरण के अनु- सार तो रूपक के यही छः भेद हैं जो ऊपर कहे गये हैं, परंतु वर्णनप्रणाली के अनुसार इन्हीं सब रूपको के केवल तीन प्रकार