पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/२५

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श्लेष 28 इसमें अन्तिम चरण के अन्तिम वाक्य स्पष्ट प्रकट होता है कि कवि का लक्ष्य दोनों ओर है। सीता संग सोभित=श्री ता संग सोभित । लच्छन : लक्ष्मण, शुभ लक्षण । भरत = भरता है, भरतजी। सूरकूल सूर्यकूल, वीरगण । दासरथी दशरथ के पुत्र, रथी हैं दास जिसके। लंक = लंका, कमर । वान रहैं = वाण रहते हैं, बानर हैं। सिंधुर है बाँधे =सिंधु को बाँधा, हाथी घोड़े बँधे रहते हैं । तेगहि कै भेटै = तलवार ही से भेंटता है, उसको पकड़कर भेंटता है। जौनराकस मरद जाने जो नर अकस में मरद समझता है, जो राक्षसों को मर्दन करना चाहता है। इसी प्रकार और भी उदाहरण समझ लेना चाहिये । अर्थ श्लेष के और अधिक उदाहरण अर्थालङ्कार में दिये जायेंगे। सूचना- शब्दश्लेप में एक वा दो शब्द होते हैं और उनका श्लेपार्थ केवल उन्हीं शब्दों पर निर्भर रहता है। यदि वे शब्द पर्यायवाची शब्दों से बदल दिये जायँ तो वह अलंकार ही मिट जाता है। इसी से उसे शब्दालंकार मानना पड़ा है। अर्थश्लेष में शब्दों को बदल देने पर भी अलङ्कार बना रहता है। कहीं ऐसा भी होता है कि कुछ शब्दों को बदल सकते हैं, कुछ को नहीं बदल सकते । ऐसे स्थान पर जिसकी प्रधानता हो वही मानना चाहिये।