पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/२३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्लेष दो अजौं तर्योना ही रह्यो श्रुति सेक्त इक अंग । नाक बास बेसरि लह्यो बसि मुकुतन के संग ॥ इसमें तखोना, श्रुति, नाक, मुकुतन शब्दों में श्लेष है। परन्तु बिहारी का मुख्य तात्पर्य कर्णफूल और नथ से है, न कि किसी मुमुच से, जैसा कि श्लेष से व्यंजित होता है। इसी से यह शब्दालंकार है। इसी प्रकार नीचे के दोहों में समझना चाहिये। दो०- जो चाहो चटक न घटै मैलो होय ल मित्त ।। रज राजस न छुवाइये नेह चीकने चित्त । ( इसमें रज और नेह शब्दों में श्लेष है) दूरि भजत प्रभु पीठि दे गुन विस्तारन काल । प्रगटत निर्गुन निकट ही चंग रंग गोपाल ॥ ( इसमें गुन और निर्गुन शब्दों में श्लेष है) नीचे लिखे हुए रसनिधिकृत दोहों में भी ऐसा ही समझो। इनमें 'नेह' शब्द में श्लप है। दो-धनि दृगतारन के जु तिल जिनमें स्याम सनेह । बिना नेह के तिल किते परे रहत हैं देह ॥ कहनावत यह मैं सुनी पोषत तनको नेह । नेह लगाये अब लगी सूखन सिगरी देह ॥ आपु बुसाते सजना नेह न दीजै जान । नही तिन नहै तजे खरि कै जात निदान ॥ (खरि-खली, निर्दय ) चलि न सके निज ठौर ते जे तन द्रुम अभिराम । तहाँ आय रस बरसिबो लाजिम तोहिं घनस्याम ।। (रस त=पानी, श्रानंद । घनस्याम-काला बादल, कृष्ण)