१८ अलंकारचंद्रिका 9 राम-मानससलिलनुधा प्रतिमानी। जिये कि लवन पयोधि मराली। वर रसालवन बिहरनसीला। लोह कि कोकिल विपिन करीला॥ सूचना- अनेक प्राचार्यों ने इल अलंकार को अर्थालंकार माना है , पर हम इसे शब्दालकार ही मानते हैं, क्योंकि विशेष कंठध्वनि ही से इस अर्थ का हेरफेर होता है। कंठध्वनि श्रवण का विषय है। श्रवणमात्र की अलकारता शब्दालंकार ही मानी जा सकती है। ४-श्लेष दो०-दोय तीन अरु भाँति बहु, आवत जामें अर्थ । श्लप नाम ताको कहत, जिनकी बुद्धि समर्थ ॥ विवरण-से शब्दों का प्रयोग जिनके दो-तीन अर्थ हो सकते हो, नप अलंकार कहलाता है। इसके दो भेद होते हैं- (१) वह जहाँ कवि का मुख्य तात्पर्य एक ही अर्थ से होता है। इसकी गणना शब्दालंकारों में हो सकती है। (२) वह जहाँ कवि का तात्पर्य दोनों वा तीनों अर्थो से होता है । इसकी गणना अर्थालंकारों में होनी चाहिये । उदाहरण- 'रावन सिर सगेज वनचारी । चली ग्धुवीर सिलीमुख धारी” यहाँ पर 'सिलीमुख' शब्द के दो अर्थ हैं, (१) वाण (२) भौंरा तुलसीदासजी कहते हैं कि जैसे भौर दौड़कर कमलवन में जाते हैं और कमलां में घुस जाते हैं, उसी प्रकार रधुनाथजी के शिली- मुख (वाण ) रावण के सिरों में घुसने लगे। तुलसीदासजी का मुख्य लक्ष्य वाणों की ओर जान पड़ता है, न कि वाण और भौंरा दोनों की ओर । इस हेतु यह श्लेप शब्दालंकार है । इसी प्रकार बिहारी कृत नीचे लिग्वे दोहों में एक अर्थ की मुख्यता है, इसलिये इन दोनों का श्लेष शब्दालंकार है।
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