अतद्गुण १०७ दो०-जहाँ आपनो रंग तजि गहै और को रंग । ताको तद्गुन कहत हैं भूषन बुद्धि उतंग ॥ यथा- १-जाहिरै जागत सी जनुना जब बूढ़े बहै उमहै वह बेनी । त्यौं 'पदमाकर' हीर के हारन गंग तरंगन सी सुखदेनी ॥ पायन के रंग सोरगिजात सीभाँति ही भाँति सरस्वती सेनी। पैरै जहाँ ही जहाँ वह बाल तहाँ तहाँ ताल में होत त्रिबेनी। २-गई बिसद रंग रुचिरई भई अरुन छबि नौल । लै मुकुता कर में करति तूं मूंगा को मौल ॥ ३-सोनजुही सी होति दुति मिलत मालती माल । ४-अधर धरत हरि के परत ओठ डीटि पट जोति । हरित बाँस की बाँसुरी इन्द्रधनुष रंग होति ॥ सूचना-किसी-किसी प्राचार्य का मत है कि 'रंग' के अलावा 'रस' और 'गंध' भी इसी अलंकार का विषय है। परंतु हमें जितने उदाहरण इसके मिले हैं वे सब रंग ही से संबंध रखते हैं और भूषण ने तो परिभाषा ही में रंग' शब्द कह दिया है। ३६-अतदगुण दो०-रहै आन के संगहू गुन न आन को होय । ताहि अतद्गुन कहत हैं कबि कोबिद सब कोय ॥ विवरण-तद्गुण का उलटा इसे समझना चाहिये । इसमें भी केवल रंग का विचार ही मुख्य है। यथा- १-लाल बाल अनुराग सों रंगत रोज सब अंग। तऊ न छोड़त रावरो रूप साँवरो रंग ॥ २-गंगाजल सित अरु असित जमुना जलहु अन्हात । हंस हरत तो सुभ्रता तैसिय बढ़ न घटात ।।
पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/१११
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।