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रघु का दिग्विजय

में था और लदाख़ भी इसी के अन्तर्गत था। यहां के घोड़े और अख़रोट प्रसिद्ध थे। काम्बोज के रहनेवाले कुछ तो मुसलमान हो कर काबुल में बसे, कुछ भारतवर्ष में आये। यहाँ जो मुसलमान हो गये वे कंबोह कहलाते हैं और जो हिन्दू हैं वे अपने को कंबोह या कंबुज कहते हैं।

यहां से रघु की सेना हिमालय प्रान्त में घुसी और गंगा के किनारे ठहरी। यहीं कस्तूरी मृग की सुगंध से हवा बसी हुई थी और यही पहाड़ियों (संभवतः गढ़वालियों) से लड़ाई हुई जो गोफनों से पत्थर फेंक कर लड़ते थे। उनको जीत कर रघु आगे बढ़े तो उत्सव संकेत पहाड़ी मिले जिन्हें आप्ते महाशय जंगली बतलाते हैं। संभव है कि ये नैपाली हों। यहां से ऐसा जान पड़ता है कि रघु कैलास भी गये और लौहित्या (ब्रह्मपुत्र) उत्तर कर प्राग्ज्योतिषपुर आये जहां का राजा डर के मारे कांपने लगा।

इस के आगे कामरूप देश था, वहां के राजा ने हाथी भेंट दे कर रघु के पावँ पूजे।

यहीं दिग्विजय समाप्त हुआ।

रघु का दिग्विजय समुद्रगुप्त के दिग्विजय से मिलाया जाता है, और इससे यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है कि कालिदास समुद्रगुप्त के दरबार के कवि न थे, और न उनके समकालीन थे। समुद्रगुप्त की प्रशस्ति जिसमें उनका दिग्विजय लिखा है हरिषेण की रची है और इलाहाबाद के किले के भीतर अशोक की लाट पर अशोक की धर्मलिपियों के नीचे खुदी है। हमने कई बरस हुये इस की छाप का फोटोग्राफ लेकर सरस्वती में छपवाया था। इसकी पूरी जांच करने से यह लेख बहुत बढ़ जायगा। इसके विषय में इतना ही कहना है कि समुद्रगुप्त के दिग्विजय का वर्णन रघु के दिग्विजय की भाँति क्रमवद्ध नही है। दूसरी बात यह है कि भारत के