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रघु का दिग्विजय



गयो सरन दै तोषन काजा।
सोइ गज कामरूप-नरराजा॥

इस से प्रकट है कि रघु ने पहिले पूर्व की यात्रा की और राह के राजाओं को जड़ से उखाड़ते हुये समुद्र के तट पर पहुँचे जो ताड़ के बन से काला हो रहा था। यहाँ सुह्म देश था। सुह्म देश को कुछ विद्वान आजकल का अराकान मानते हैं परन्तु हम उन लोगों से सहमत हैं जो इसे वंग के पश्चिम का प्रान्त बताते हैं। इसकी राजधानी ताम्रलिप्त थी। ताम्रलिप्त को आजकल तामलुक कहते हैं। सुह्म के राजा ने रघु की आधीनता स्वीकार कर ली।

यहाँ यह विचारने की बात है कि उत्तर कोशल और सुह्म के बीच में मगध और अंग राज्य थे। उनका क्या हुआ? ये दोनों राज्य न तो कोशल के अन्तर्गत थे न उसके आधीन थे। इसका प्रमाण यह है कि इन्दुमती के स्वयंवर में जिसमें रघु का बेटा आज भी गया था और जिसका वर्णन रघुवंश के छठे सर्ग में है, मगध और अंग के राजा दोनों आये थे। मगध के राजा का नाम परन्तप है। दोनों की बड़ी प्रशंसा की गई है। हमारे मित्र बाबू क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने विद्वत्तापूर्ण लेख "Date of Kalidasa" में लिखा है कि इसका कारण यही हो सकता है कि महाकवि मगध और अंग दोनों देश के राजाओं से प्रेम रखता था और उनका जी दुखाना नहीं चाहता था। छठे सर्ग में अवसर पाकर दोनों की बड़ाई कर दी।[१]


  1. अंगराज के विषय में रघुवंश सर्ग ६ में लिखा है।
    "श्री, वाणी इन महँ मिलि रहहीं"
    इससे ध्वनित है कि अंगराज कम से कम विद्वानों और कवियों का आदर करता था और संभव है कि उसने महाकवि को भी पूजा हो।