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उपसंहार (क)
अयोध्या के सोलङ्की राजा

सोलङ्की जिन्हें इक्षिण में चालूक्य और चौलूक्य कहते हैं साधारणतः अग्निकुल कहलाते हैं जिनकी उत्पत्ति आबू पर्वत पर वसिष्ठ के अग्निकुण्ड से हुई थी। परन्तु रायबहादुर महामहोपाध्याय पंडित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने अपने सिरोहीराज के इतिहास में लिखा है कि सोलङ्की अयोध्या से पहिले दक्षिण को गये और इसके प्रमाण में हमारा ध्यान एक संस्कृत और पुराने कनाडी दानपत्र पर आकर्षित किया है जो इंडियन ऐन्टीक्वेरी[१] में छपा है। यह दानपत्र शाका ९४४ (ई॰ सन् १०२२-२३) के पीछे का है। और इसका दाता राज-राज द्वितीय है जिसका उपनाम विष्णुवर्द्धन भी था। राज-राज द्वितीय भाद्र मास की कृष्ण द्वितीया को बृहस्पति के दिन सिंहासन पर बैठा जब कि सूर्य सिंहराशि में था। इस दानपत्र में राजा राजराज ने गुढ्ढवाड़ी विषय में कोरू मिल्ली गाँव भारद्वाज गोत्र और आपस्तम्ब सूत्र के ब्राह्मण चीड़मार्य को दान किया था। हम आगे उस दानपत्र के कुछ श्लोक उद्धृत करते हैं।

ॐ श्रीधाम्नः पुरुषोत्तमस्य महतो नारायस्यप्रभो।

र्नाभीपङ्करहाद्बभूव जगतः स्रष्टा स्वयंभूस्ततः॥
जक्षे मानस सूनु रत्रिरिति यः तस्मान्मुने रत्रितः।
सोमो वंशकरस् सुधांशुरुदितः श्रीकंठ चूड़ामणिः॥
तस्मादासीत् सुधासूते र्बुधो बुधनुतस्ततः।

जातः पुरूरवा नाम चक्रवर्ती सविक्रमः॥

  1. Indian Antiquary, Vol, XIV, pp. 50 55.