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अयोध्या का इतिहास


इतिहासज्ञ इन्हें गंजे शहीदा मानते हैं। वास्तव में यहाँ मुसलिम पदार्पण, विक्रम संवत् को ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ।

अलप्तगीन जो पहिले खु़रासान और बुख़ारा के सामानी बादशाहों का गुलाम था काबुल और कंदहार के बीच के प्रान्त का राजा बन बैठा। ग़ज़नी उसकी राजधानी थी। उसके मरने पर उसका बेटा इसहाक़ राज का अधिकारी हुआ परन्तु थोड़े ही दिन पीछे वि० १०३४ में सुबुक्तगीन नाम के गु़लाम ने ग़ज़नी को अपने अधिकार में कर लिया। सुबुक्तगीन के विषय में कहा जाता है कि उसने सबसे पहिले पञ्जाब के राजा जयपाल पर आक्रमण किया। परन्तु इतिहास के प्रसिद्ध लेखक श्रीयुत चिन्तामणि विनायक वैद्य का यह मत है कि इतिहास में इन नाम के पञ्जाब के किसी राजा का पता नहीं लगता। उस समय कन्नौज में परिहार वंश का राजा राज्यपाल राज करता था, उसी से लड़ाई हुई। राज्यपाल का फ़ारसी लिपि में राजा जयपाल बन जाना सुगम है। जयपाल हार गया और उसने सुबुक्तगीन को कर देना स्वीकार कर लिया जो शिला-लेखों में तुरुष्क-दण्ड कहलाता है। हिन्दुओं की हार का कारण डाक्टर विनसेण्ट स्मिथ ने यह लिखा है कि आक्रमणकारी मांसाहारी, धर्मान्ध लड़ाके थे।

सुबुक्तगीन के पीछे उसका बेटा महमूद ग़ज़नी का बादशाह हुआ। उसने भारतवर्ष पर कई बार आक्रमण किये। उसका भाञ्जा सैय्यद सालार मसऊद ग़ाजी जो ग़ाजी-मियाँ और बाले-मियाँ के नाम से प्रसिद्ध हैं, भारतवर्ष में आया और मारता-काटता सत्रिख पहुँचा जो आज-कल बाराबक्डी जिले में एक छोटा सा नगर है परन्तु उस समय बड़ा समृद्ध था। यहाँ उसने डेरा डाला और देश जीत कर हिन्दुओं को मुसलमान करने के अभिप्राय से उसने अपने सेना नायक सैफउद्दीन और मियाँ रज्जब को बहराइच को ओर भेजा। मलिक फ़जल को बनारस और अज़ीज़उद्दीन को गोपामऊ रवाना किया। मसऊद की सेना