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अयोध्या के गुप्तवंशी राजा

भटक कर उज्जयिनी जाने को कह रहा है[१] और उसे यह सूचना दे रहा है कि न जाओगे तो तुम्हारा जीना अकारथ है।[२]

इसके पीछे अयोध्या में दरबार उठ आया और कालिदास हमारी पावन पुरी में पहुंचा। यहाँ उसने संस्कृत भाषा का सर्वोत्तम महाकाव्य रघुवंश रचना प्रारम्भ किया और इसमें "उस प्रसिद्ध तेजस्वी राजवंश की मुख्य बातें लिखी जो सूर्य भगवान से निकला और जिसमें साठ प्रतापी और अनिन्द्य राजाओं के पीछे मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र ने अवतार लिया।" इनके पीछे इसमें अग्निवर्ण तक सूर्यवंशी राजाओं का संक्षिप्त वर्णन है।

कालिदास अपने स्वामी के साथ हिमालय की तरेटी में देवीपाटन गया था और उसने पहिले और दूसरे सर्गों में पर्वत का दृश्य लिखा है। उसे चन्द्रगुप्त द्वितीय के दिग्विजय का पूरा ज्ञान था जिसका उसने सर्ग, ४ में वर्णन किया! उसने झूँसी के किले से गंगा और यमुना का संगम देखा था (जहाँ से अब भी संगम का दृश्य सबसे अच्छा देख पड़ता है) और सर्ग १३ में उसकी छटा दिखाई। वह अपने स्वामी के साथ उज्जैन से अयोध्या आया था, अयोध्या की उजड़ी दशा उसने अपनी आँखों देखी थी, अयोध्या में राजधानी स्थापन करते समय भी उपस्थित था जिसका विवरण सर्ग १६ में है।

दुर्भाग्यवश रघुवंश समाप्त न हो सका। महाकवि के पास जगन्नियन्ता का बुलावा आ गया और उसने अपनी अमर आत्मा को अपने इष्टदेव युगल सरकार को सौंप कर सरयू बास लिया और अपनी अमूल्य रचना को केवल भारतवासियों के लिये नहीं वरन् सारे सभ्य संसार के लिये उत्तम साहित्य का अक्षय धन छोड़ गया।


  1. वर पन्या यदपि भक्तो प्रस्थितस्योत्तराशाम्।
  2. वंचितोऽसि।
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