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अयोध्या का इतिहास

में मिल गया है। हुआन च्वांग ने पिसोकिया राजधानी की परिधि १६ ली मानी है। इसके भीतर बड़ी राजधानी नहीं समा सक्ती। हम समझते हैं कि यह रामकोट की परिधि है जो श्री रघुनाथजी का कि़ला माना जाता है और जिसका जीर्णोद्धार गुप्त-वंशी राजाओं ने किया था। डाक्टर फ़ूरर का मत है कि गोंडावाले इस पेड़ को चिलविल का पेड़ मानते हैं जो छः या सात फुट से अधिक ऊँचा नहीं जाता। यह पेड़ करौंदा भी हो सकता है जिसकी दतूनें अब भी अवध में विशेष कर लखनऊ में की जाती हैं । दतून का जमना कोई अनोखी बात नहीं है। कानपूर जिले के घाटमपूर नगर में तहसील से एक मील की दूरी पर एक महन्त का पक्का मकान है जिसके दूसरे खंड पर एक नीम का पेड़ बीच से फटा हुआ है। यह पेड़ दो सौ वर्ष हुये दतून गाड़ देने से उगा था।

इन बातों से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि मैं जनता के विश्वास पर आक्षेप करूँ। भक्त जन को इस बिचार से सन्तोष हो सक्ता है कि बुद्धदेव भी विष्णु भगवान् के वैसे ही अवतार थे जैसे श्री रघुनाथजी। यह भी सम्भव है, कि बुद्ध भगवान् ने पहिले अवतार का स्मरण करके अपनी दतून वहीं गाड़ दी, जहाँ रामावतार में दतून किया करते थे।

बौद्ध-कालीन अयोध्या का वर्णन लिखने से पहिले बौद्ध-ग्रन्थों के अनुसार बौद्धावतार से पहिले अयोध्या और उसके राजाओं का कुछ वर्णन करना अनावश्यक न होगा। बौद्ध-ग्रन्थों का वर्णन ईसा मसीह के प्रादुर्भाव से सात सौ वर्ष पहिले के आगे नहीं बढ़ता । इन अन्थों से विदित है कि कोशल देश में सरयू तट पर एक नगर अजोझा (अयोध्या का प्राकृत रूपान्तर) बसा हुआ था। यही साकेत भी था। मध्यकालीन संस्कृत साहित्य में साकेत और अयोध्या पर्यायवाची हैं। महाकवि कालिदास रघुवंश सर्ग ९ में राजधानी को अयोध्या [१] और


  1. पुरमविशदयोध्याम्।