उपन्यास , काँपती नाती थी, पर कोई पूछता भी नहीं था। जिठानी सवेरे भाकर जगा जाती, और आप सो जाती। अन्त में मैं खाट में गिर गई, इस पर भी जिगनी ने मकर-फरेव बताया, और बोली -'जैसे बने, काम करना ही होगा, तेरा यह बहाना एक न सुना नायगा । चल पानी भरला। मैं पानी भरने गई, तो धड़ा लेकर गिर पड़ी। कई दिन से कुछ खाया 'न था, करती क्या? पर सास ने रस्सी लेकर ऐसी मार लगाई, कि मैं अधमरी होगई । उसी दिन जोर का बुनार चढ़ा, कई दिन में होश आया। मालती कहती थी, कि त वाय में बकती थी। ये सब तो तुझे मरा समझते थे। फिर तभी से भन्दा भन्दा ज्वर रहने लगा। खाँसी भी होगई । बाजरे की रोटी खानी पड़ती थी, जिससे दस्त होगये....." नारायणी और कुछ कहना चाहती थी, कि जयनारायद ने कहा-"वस-बस-चुप रह, श्रव नहीं सुना नान।" सुनते-सुनते वे पागन-से होगये थे । अन्त में उनसे बैठा न रहा गया। वे उठकर कमरे में टहलने लग गये। कुछ देर में एक लम्बी सांस ली। फिर बेटी के पास जाकर कहा-"अच्छा बेटा, कोई चिन्ता नहीं, अब तू जल्दी ही अच्छी हो जायगी।" नारायणी ने क्षणेक पिता की ओर ताककर कहा-"वाया,. अब तुम मुझे वहाँ तो न भेजोगे?" नयनारायण ने देखा-बालिका आतङ्क से कॉप रही है।
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