उपन्यास कातर भाव से पुत्री को गोद में ले बैठे। अभी तक खाँसी उसे दम नहीं लेने देती थी। बढ़ी देर में थोड़ा का निकला, और वह थककर मूञ्छित-सी होकर पिता की गोद में गिर पड़ी। उसका सिर हुलक गया। कुछ देर में दम लेकर उसने हांपते-हाँपते कहा-"चावूनी, मैं मरी !" यह कहकर एक कादर दृष्टि से वह पिता को देखने लगी। नयनारायण ने कठिनता से उमढते हुए हृदय को रोककर दुलार से कहा-"कोई चिन्ता नहीं बेटी ! बड़ी नल्दी श्राराम हो जायगा।" रोगिणी ने कुछ नहीं कहा-वह धीरे-धीरे श्वास ले रही थी। बोलना चाहा, पर खाँसी के डर से बोली नहीं । जयनारायण ने उसे गोद में सुलाकर कहा-"कवसे तुझे बीमारी हुई ?" "दशहरे के दिन से खाट में पड़ी हूँ।" "दशहरे से? और किसी हकीम-डॉक्टर को नहीं दिखाया?" "कौन दिखाता?" कहकर बालिका की आँखों में जाने किस को याद करके पानी छलछला श्राया। 'कुछ व्हरकर जयनारायण ने क्रोध से कहा--"क्या-क्या सब मर गये थे? घर में कोई नहीं था?" नारायणी चुप रही। कुछ ठहरकर जयनारायण बोले-~-"और तैने मुझे भी अपनी जैर-नवर की कोई चिट्ठी न भेजी ?" नारायणी चुप रही। नयनारायण ने कहा-"वोल, चुप क्यों है ? तूने मुझे भी अपनी खवर नहीं भेनी ?"
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