उपन्यास ८९ "नहीं, मैं तो बिलकुल होश में हूँ। तुम यह बताओ, कि जुम्हारी लद्की बन्भ-भर दुःख भोगे, यह अच्छा ज्या एक बार उसे फिर सुसी देखें, यह अन्धा है ?" "अपनी सन्तान का सुख सभी चाहते हैं। पर यात वही की जाती है, जो करने की होती है।" "तो यह बात करने की नहीं है ?" "नीच कुजातों में भी ऐसा होता नहीं दीखता?" "क्यों, पर तो वरी-बड़ी ज्ञातों में भी होता है-तुमने क्या बसन्तपुरवालों का हाल नहीं सुना ? और प्रार्य-समान तो इसका प्रचारफ ही है ?" "आग लगे इस थार्य-समानाने - और भाड़ में जाय, वह वसन्तपुरवाले ! मरे मेरे द्वार पर धावें, तो माह से खयर V--- "तिरिया तेल हमीर हठ चढ़ी न दूजी वार जयनारायण ने देखा, फि मामला असाध्य है। वह किसी तरह अपनी खी को न समझा सके । निराश होकर करवट बदल, सोने का बहाना कर, पद रहे । थोड़ी देर बाद स्त्री याहर निक्ल गई। उस दिन उसका उपवास रहा।
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